जानिए भद्रा को , क्या है ? कब अशुभ होती है ।

 भद्रा स्वरूप,विधि -निषेध  तथा परिहार 

(लेख - पं ० -हेमवती नन्दन कुकरेती )

भद्रा की उत्पति  कैसे हुई 

                 एक कथा आती है कि भद्रा सूर्य भगवान की पुत्री थी और इनकी माता का नाम छाया था तथा शनि देव की सगी बहिन है | भद्रा का स्वरूप काला ,रूप उग्र,केश लंबे तथा दाँत तीक्षण व विकराल हैं | कथा में वर्णन आया कि जब उसका जन्म हुआ तो वह संसार को निगलने के लिए दौड़ी तथा यज्ञों में विघन-बाधा डालने लगी,उत्सवों तथा मंगल कार्यों में उपद्रव करने लगी और सारे संसार को पीड़ा पहुँचाने लगी | भद्रा के विकराल रूप उदण्ड स्वभाव के फलस्वरूप संसार में कोई भी सुयोग्य वर उसे प्राप्त नहीं हो पाया तथा जगत के कोई भी  पुरुष उससे विवाह नहीं करना चाहते थे | भगवान सूर्य इस कारण अत्यधिक दुखी थे, तो उन्हे एक युक्ति सूझी कि क्यों न स्वयंबर का आयोजन किया जाय | स्वयंबर का आयोजन किया गया और इस आयोजन में तीनों लोकों के देव -दानव आए हुए थे | भद्रा ने आयोजन का मंडप,तोरण द्वार तथा आसन आदि सभी उखाड़ फेंका और आयोजन का विध्वंस किया | भद्रा के इस व्यवहार से  भगवान सूर्य अत्यंत दुखी हुए | भगवान सूर्य नारायण ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की,कि भद्रा को आप ही समझा सकते है | ब्रह्मा जी ने भद्रा को समझाया और कहा कि - "हे! भद्रा बव , बालव,कौलब,तैतिल आदि चर कारणों के अंत में सातवें करण के रूप में  स्थित रहो | जो व्यक्ति तुम्हारे समय में यात्रा,गृह प्रवेश,व्यापार,खेती,उद्योग तथा अन्य मंगल कार्य करे तो तुम उसमे विघ्न डालो| जो तुम्हारा सम्मान न करे,उसका कार्य में विघ्न उत्पन्न करो| भद्रा ने ब्रह्मा जी का आदेश मान लिया और वह काल के एक अंश के रूप में विद्यमान है| ब्रह्मा जी के द्वारा वरदान दिए जाने पर व भगवान सूर्य की पुत्री होने के कारण संसार में पूजनीय है| प्रत्येक शुभाशुभ कार्य में भद्रा का निवास देखा जाता है| ब्रह्म पुराण के अनुसार सूर्य ने भद्रा का विवाह विश्वकर्मा के पुत्र विश्वरूप से किया|

                    ब्रह्मा जी ने भद्रा का निवास स्थान करण को बताया है | करण पंचांग का पाँचवाँ अंग है| एक तिथि को दो बराबर भागों में बांटने से इसका नाम करण पड़ा | इसलिए एक तिथि में दो करण तथा एक चंद्रमास मे साठ होतें है| ये करण इस प्रकार से है -बव,बालव,कौलव,तैतिल,गर(गज ),वणिज तथा विष्टि नामक सात करण होतें हैं|

                    ये करण २८ तिथि में पुनरावृति करते रहते हैं|  इसलिए इन्हें चर करण भी कहते हैं| चार करण जिन्हें स्थिर करण कहा जाता है वे यह है - शकुनि,चतुष्पद,नाग,एवं किंस्तुघ्न नामक आदि | माने गायें है|  

       करणों के स्वामी क्रमानुसार इस प्रकार से हैं- चर करण के स्वामी -  इन्द्र,ब्रह्मा,मित्र,अर्यमा,भूमि,श्री(लक्ष्मी ) तथा यम है| स्थिर करण के स्वामी क्रमशः रुद्र,सर्प,एवं मरुत ये स्थिर करण के स्वामी हैं| चर करण में सातवें करण विष्टि को ही भद्रा कहा जाता है| इसके स्वामी यम है,जो भरणी नक्षत्र,विशकुंभ योग तथा दक्षिण दिशा के स्वामी भी है | यम स्वभावत: अनिष्टकारी तथा भयावह है| ये जिस नक्षत्र,दिशा,आदि के स्वामी है,मनुष्य उनसे स्वाभाविक रूप से भयाक्रांत रहता है| भद्रा की उत्पति से संबंधित एक पौराणिक कथा है कि दैन्त्यों से प्रायोजित देवताओं की प्रार्थना पर भगवान शंकर के 'ज्वालामालाकुलनेत्रालोकित ' शरीर से गर्दभमुखी,सप्तभुजी,शव का वाहन करनेवाली तथा दैन्त्यों का विनाश करने वाली भद्रा नामक देवी का जन्म हुआ तथा इसे देवताओं ने सातवें करण के रूप प्रतिष्ठित किया| 

               रत्न कोश में भद्रा के नामों तथा तदनुरूप उसके फल का विवेचन किया गया है| ये नाम क्रमश:हंसी,नंदिनी,त्रिशिरा,सुमुखी,करालिक,वैकृति, रौद्रमुखी तथा चतुर्मुखी है|

               मुहूर्त ग्रंथों में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तथा पूर्णिमा के पूर्वार्ध और चतुर्थी तथा एकादशी तिथि के उत्तरार्ध में तथा कृष्ण पक्ष की तृतीय एवं दशमी  के उतरार्द्ध और सप्तमी एवं चतुर्दशी तिथि के  पूर्वार्ध में भद्रा (विष्टि) की उपस्थिति के विषय में बताया गया है| 

    भद्रावास   

            भद्रा का वास स्वर्गलोक,पातालोक और पृथ्वी लोक इन तीनों लोकों में माना जाता है| जब भद्रा जिस लोक में होती है तो उस लोक के वासियों को तबतब सुख-दुख का अनुभव होता है| जब भद्रा का वायस पृथ्वी में होता है तो उस समय पृथ्वी वासियों को सुख-दुख का अनुभव प्राप्त होता है| जब चंद्रमा मेष,वृष, मिथुन और वृश्चिक राशियों में होता है,तब भद्रा वायस स्वर्गलोक में होता है तथा जब चंद्रमा कुम्भ,मीन,कर्क तथा सिंह में होता है, तब भद्रा वायस पृथ्वीलोक में होता है| जब चंद्रमा कन्या,तुला,धनु और मकर राशियों में होता है, तब भद्रा वायस पाताल लोक में होता है| 

                भद्रा का वास किसी भी मुहूर्तकाल में पाँच घटी मुख में, दो घटी कण्ठ में, ग्यारह घटी हृदय में,चार घटी नाभि में, पाँच घटी कमर में और तीन घटी पुच्छ में रहता है| मुख में भद्रा कार्य का नाश करती है| कंठ में धन का नाश करती है| हृदय में प्राण का नाश करती है| नाभि में कलह कराती है| इस प्रकार भद्रा का लगभग  १२ घंटे में मात्र १ घंटा १२ मिनट का अंतिम समय शुभकारी होता है| 

भद्रा का मुख एवं पुच्छ भाग -

             मुहूर्त ग्रंथों में भद्रा के मुख भाग का समय पाँच-पाँच घटी तथा पुच्छ भाग का समय तीन-तीन घटी का वर्णन किया है| शुक्ल पक्ष की चतुर्थी का पांचवें प्रहर की अष्टमी  के दूसरे प्रहर की, एकादशी के सातवें प्रहर की तथा पूर्णिमा के चौथे प्रहर की आदि की पाँच घटी तथा कृष्ण पक्ष की तृतीय के आठवें प्रहर, सप्तमी के तीसरे प्रहर,दशमी के छठे प्रहर एवं चतुर्दशी के प्रथम प्रहर की पाँच-पाँच घटी का समय भद्रा का मुख होता है| शुक्ल पक्ष की चतुरथी के  आठवें प्रहर,एकादशी के छठे प्रहर तथा पूर्णिमा के तीसरे प्रहर की तट कृष्ण पक्ष के तृतीय के सातवें प्रहर, सप्तमी के दूसरे प्रहर, दशमी के पांचवें प्रहर तथा चतुर्दशी के चौथे प्रहर की अंत की तीन-तीन घटी का समय भद्रा का पुच्छ होता है|  भद्रा का मुख शुभ कार्यों में अशुभ मन गया है और पुच्छ भाग शुभ होता है ग्रंथों में यह कहा गया है| लल्लाचार्या के मतानुसार पृथ्वी में जितने शुभ तथा अशुभ कार्या है,वे सभी भद्रा के पुच्छ भाग में सिद्ध होतें है| इसी प्रकार दैवज्ञ गणपती का कथन है कि भद्रा के पुच्छ भाग में केवल युद्ध में विजय प्राप्त होती है तथा अन्य कार्या शुभ नहीं होते है| 

            मेरा अपना मत है कि भद्रा के पुच्छ भाग में न्यायालय में विजय प्राप्त होती है|   

भद्रा का समय तथा उसका फल 

विभिन्न मुहूर्त ग्रंथों के अनुसार यदि दिन में भद्रा का प्रवेश हो तथा वह रात्री में भी भोग कर रही हो या रात्री में भद्रा का प्रवेश हो रहा हो तथा वह दिन में भी भोग कर रही हो तो ऐसी भद्रा भद्रदायनी कही जाती है| 

भृगु ऋषि के मतानुसार सोमवार तथा शुक्रवार की भद्रा शुभ होती है,तथा शनिवार की वृश्चिक की,गुरुवार की पुण्यवती तथा शेष वारों की भद्रिका होती है| इसका तात्पर्य यह हुआ कि सोमवार,गुरुवार तथा शुक्रवार की भद्रा का दोष नहीं लगता है|  

भविष्य पुराण में भद्रा व्रत के बारे में बताया गया है| इसमें बताया गया है कि भद्रा का व्रत को करने वाला तथा उस व्रत का उद्यापन करने वाले के किसी भी कार्य में विघ्न उत्पन्न नहीं होते तथा उसे मृत्यु के बाद सुरीलोक की प्राप्ति होती है| भद्रा के इन बारह नामों का उल्लेख आया है -धन्या,दधिमुखी,भद्रा,महामारी,खरानना,कालरात्रि,महारुद्रा,विष्टि,कुलपुत्रिका,भैरवी,महाकाली,तथा असुराणा,क्षयकरी इन नामों का प्रातः काल उच्चारण करने से रोग का भय नहीं रहता है और किसी प्रकार का रोग भी नहीं होता है| भविष्य पुराण में बताया गया है कि इन मंत्रों से भद्रा की पूजा तथा प्रार्थना करनी चाहिए - 

छायासूर्यसुते देवि विष्टिरिष्टार्थदायिनि |

पूजितासि यथाशक्त्या भद्रे भद्रपदा भव ||

(भ ० पू ० उ ० पर्व १ १ ७ /३ ९)

भद्रा दो होती है - सर्पिणी तथा वृश्चिकी | मुहूर्त चिंतामणी की टीका पीयूष धारा में उल्लेख आया है कि शुक्ल पक्ष की भद्रा वृश्चिक की तथा कृष्ण पक्ष की भद्रा सर्पिणी होती है| शस्त्रों में बताया गया है कि सर्पिणी भद्रा के मुख भाग और वृश्चिकी के पुच्छ भाग में ही मंगल कार्य की मनाई है। 

भद्रा में किये जाने वाले कार्य :- 

प्राचीनआचार्योंके अनुसार-अग्नि,बंधन,अस्त्र,वध,विष,छेदन,उच्चाटन,पशु,भैंस,घोड़ा,ऊँट की खरीदारी आदि कार्य भद्रा में शुभ होतें है। 

भद्रा में वर्जित कार्य :-

भद्रा में इन कार्यों की मनाई है -विवाह,चूड़ाकर्म,यात्रा,रक्षाबंधन,मृतक का दाह संस्कार करना, तथा अन्य मंगल कार्य को भद्रा में वर्जित माना गया है। मुहूर्त ग्रंथों में कह गया है कि यदि कोई भद्रा में मंगल की कामना के लिए कार्य करता है तो कार्य सिद्ध नहीं होतें है। भद्रा में श्रावण माह  की पूर्णिमा को किया जाने वाला कर्म तथा फाल्गुन माह में होलिका दहन के दिन यदि भद्रा काल में पड़ती है तो वर्जित माना गया है। इसका फल यह है कि श्रावण की पूर्णिमा को किया जाने वाला कर्म से राजा को हानी तथा भद्रा में होलिका दहन करने से अग्नि का भय होता है। 

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टिप्पणियाँ

  1. प्रिय दोस्तों यदि आप को यह जानकारी अच्छी लगी तो कमेंट बॉक्स में अपनी सहमती दे।

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