भारत में पंचाग निर्माण की परंपरा

 

 
 पंचाग परिचय:-
  भारतीय ज्योतिषशास्त्र का मूलाधार आकाशीय ग्रहनक्षत्रों का गणित तथा वेध है। गणित के आधार पर सूर्य चन्द्रादि की स्थितियों का सही निर्णय कर गोलीयवेध से दृग्गणितैक्यजन्य समन्वय के द्वारा ग्रहों की वास्तविक दृष्टयुपलब्ध स्थिति ही, उनकी व्यवहारिक उपयोगिता का मूल आधार है। पर्व, धर्मकार्य, यात्रा, विवाह, उत्सव जातक तथा भविष्यफल की जानकारी हेतु ग्रहगणित की शुद्धता की परख पंचांगनिर्माण के द्वारा ही सिद्ध होता है।
पंचानां अंगानां समाहारः इति पंचांगम्। पंचांग में पाँच अंग प्रधान होते है तिथि, वार, नक्षत्र, योग एवं करण। इन पाँच अंगों के समाहार को पंचांग कहते है। यथा -

तिथिवारं च नक्षत्रं योगः करणमेव च।
        इति पंचांगमाख्यातं व्रतपर्वनिदर्शकम्।।

 ये सभी व्यक्तकाल के प्रधान तत्व है। इनके ही आधार पर प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक एवं शास्त्रीयकार्य सम्पन्न होते हैं। 'पंचांग' ज्योतिषशास्त्र का मेरूदण्ड माना जाता है। शककाल, वर्षारम्भ, संवत्सर, पूर्णिमान्त- अमान्त मान इत्यादि कुछ बातें पंचांग की ही अंगभूत है। विदित है कि ज्योतिषगणित में ग्रहस्थिति लाने के लिए कोई न कोई आरम्भकाल मानना आवश्यक होता है।

1 पंचांग का स्वरूप

    भारतवर्ष में पंचांग निर्माण की प्रथा वैदिककाल से चली आ रही है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि पंचांग का प्रादुर्भव हमारे देश में तभी से प्रचलित हुआ होगा जब हमें ज्योतिषशास्त्र का किंचित ज्ञान होने लगा था, पर यह निश्चित है कि वह पुराना पंचांग आज के समान नहीं था। पंच अंग के स्थान पर कदाचित् उस समय चतुरंग, त्र्यंग, द्वयंग अथवा एकांग भी प्रचलित थे और लिपि का ज्ञान होने के पहले तो कदाचित् श्रवण कर मुखार्थ ही उनका ज्ञान कर लेते रहे होंगे। परन्तु इतना अवश्य है कि ज्योतिषस्थिति दर्शक कोई पदार्थ अति प्राचीनकाल से ही प्रचलित रहा है।


वेदों में भी लिखा है कि अमुक दिन, नक्षत्र और ऋतु में अमुकामुक कर्म करने चाहिए, अतः स्पष्ट है कि ज्योतिर्दर्पण अत्यन्त प्राचीन है। उसका प्रथम अंग सावन दिन है। सम्प्रति सावन दिन के स्थान पर वार का प्रयोग किया जाता है। सावन दिन के बाद नक्षत्रों का ज्ञान हुआ और नक्षत्र दूसरा अंग बना। उसके बाद तिथि का ज्ञान हुआ। वेदांगज्योतिषकाल अर्थात् शकपूर्ण १४००वें वर्ष में तिथि और नक्षत्र अथवा सावन दिन और नक्षत्र दो ही अंग थे। तिथि का मान लगभग ६० घटी होता है अर्थात् उसे अहोरात्र दर्शक जानना चाहिए। तदनुसार केवल दिन अथवा केवल रात्रि के दर्शक तिथ्यर्घ अर्थात् करण नामक अंग का प्रचार तिथि के थोड़े ही दिनों बाद हुआ होगा और उसके बाद वार प्रचलित हुए होंगे। अथर्वज्योतिष में करण और वार दोनों का उल्लेख मिलता हैं।

         आकाश में सूर्य और चन्द्रमा के एकत्र होने पर अर्थात् उनका योग समान होने पर अमावस्या समाप्त होती है। इसके बाद गति अधिक होने के कारण चन्द्रमा सूर्य से आगे जाने लगता है। दोनों में १२ अंश का अन्तर पड़ने में जितना समय लगता है उसे 'तिथि' कहते है। इस प्रकार दोनों के पुनः एकत्र होने तक अर्थात् एक चान्द्रमास में ३६० + १२ = ३० तिथियाँ होती हैं। सूर्य और चन्द्रमा में ६अंश पड़ने में जो समय लगता है उसे करण कहते हैं। एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के काल को वार कहते हैं। नक्षत्रमण्डल के आठ आठ सौ कलाओं के २७ समान भाग माने गये हैं प्रत्येक भाग को और उसे भोगने में चन्द्रमा को जितना समय लगता है, उसे 'नक्षत्र' कहते हैं। सूर्य-चन्द्र के भोगों के योग द्वारा योग लाया जाता है। सूर्य और चन्द्रमा की गति का योग ८०० कला में जितना समय लगता है उसे 'योग' कहते हैं।

     अधर्वज्योतिष में करण और वार दोनों विद्यमान है, हमारे देश में शकारम्भ के पूर्व नक्षत्रप्रधान गणना रहने पर भी मेषादि संज्ञाओ का प्रचार वैदिक काल में हुआ होगा। यह भी देखा जाता है, कि अथर्वज्योतिष और याज्ञवल्यस्मृति में राशियों का ज्ञान होने के शताब्दी पूर्व वारों का का ज्ञान हुआ होगा। एक अन्य ग्रन्थ में भी इसका प्रमाण मिलता है। ऋकगृह्य परिशिष्ट में तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र एवं तिथियों की नन्दादि संज्ञाओं दिन क्षय और वार का वर्णन है परन्तु मेषादि राशियों का स्पष्ट वर्णन नहीं है। अतः ये तीनों ग्रन्थ मेषादि राशियों के प्रचार होने के पूर्व के हो सकते है। परन्तु इन तीनों का निर्माण एक ही समय नहीं होगें यह निश्चित है। इससे ज्ञात होता है कि वारों का ज्ञान मेषादि संज्ञाओं से कई शताब्दी पूर्व हुआ है। वारों और मेषादि संज्ञाओं की उत्पत्ति सर्वप्रथम आधुनिक समालोचकों के अनुसार चाहे जहाँ हुई हो पर उनका सर्वत्र प्रचार होने से उनका मूल एक होना चाहिए। क्योंकि उनमें गणितादि का कोई प्रपंच नहीं है। उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे देश में दोनों एक साथ प्रचलित हुए होंगे। आधुनिक संकल्पना के अनुसार वारों का प्रचार मेषादि राशियों से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व अर्थात् शक पूर्व १०००० के आस पास हुआ होगा। वे शक पूर्व ३००० अर्वाचीन तो वे कथमपि नहीं ही है।

    करण नामक काल विभाग तिथि द्वारा अपने आप ध्यान में आने योग्य है। तिथि के कुछ दिनों बाद और वार के पूर्व उसका प्रचार प्रसार हुआ होगा। वेदांगकालीन जिन ग्रन्थों का विवेचन भारतीय ज्योतिष में किया गया है, उनमें से अथर्वज्योतिष याज्ञवल्क्यस्मृति और ऋग्गृह्य परिशिष्ट, इन तीनों ग्रन्थों में वार शब्द आये है। इन तीनों में से याज्ञवल्क्यस्मृति में करण नहीं है। शेष दो में करण का वर्णन मिलता है। इससे शंका होती है कि वार के पहले करण का प्रचार नहीं रहा होगा। यदि यह ठीक है तो दोनों का प्रचार एक ही समय हुआ होगा अथवा करण वारों के कुछ दिनों के बाद शीघ्र ही प्रचलित हुए होंगे। इससे ज्ञात होता है कि ये भी शक पूर्व ३००० से अर्वाचीन नहीं है। शनिवार, रविवार, सोमवार इत्यादि वार क्रम का विवेचन भारतीय ज्योतिष के सिद्धान्त ग्रन्थों में उल्लिखित हैं। सम्प्रति भूमण्डल में जहाँ-जहाँ वार प्रचलित है, सर्वत्र सात ही है और उनका क्रम भी सर्वत्र एक है। अतः वारों की उत्पत्ति किसी एक ही स्थान में हुई। अहोरात्र शब्द से होरा की उत्पत्ति तथा सूर्यसिद्धान्त में वार क्रम की उत्पत्ति का विधान प्राप्त है। अतः विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ वेद ही सूर्यादि क्रम से वारोत्पत्ति का प्रथम मूल है। वहीं से सह दुनियाँ भर में फैला। यद्यपि हमारे देश में अब तक अनेकों ताम्रपट्ट और शिलालेख मिल है उनमें वारों का उल्लेख का प्राचीनतम उदाहरण शक ४०६ का विद्यमान है। मध्यप्रान्त के 'एरन' नामक स्थान के एक खम्भे पर बुद्धगुप्त राजा का गुप्त वर्ष १६५ अर्थात् शक ४०६ आषाढ़ शुक्ल द्वादशी गुरूवार का एक शिलालेख है। इस समय इससे प्राचीन ज्योतिष का ऐसा पौरूष ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिसके लेख से यह विदित होता हो कि वह शक ४०६ से प्राचीन है।

    श्रीमानदीक्षित के वारोत्पत्ति क्रम का वैदेशिक बोध का खण्डन श्रीमान वेदविद्यालकार प० दीनानाथ शास्त्री चुलैट तथा वि०वि० मधुसूदन के प्रमाण से हो जाता है। वेदों में सभीग्रह तथा नक्षत्र एव केतुओं के साथ राशि विज्ञान प्रमाणिकता के साथ प्राप्त होने से वारक्रम के भारतीय मूल होने में सन्देह की कोई गुंजाईश नहीं है।

      भारतीय पंचांग का निर्माण तीन पक्षों पर आधारित हैं सौरपक्ष, आर्यपक्ष एवं ब्राह्मपक्ष। सूर्यसिद्धान्त से सम्बन्धित सौरपंचांग का निर्माण होता था। आर्यभट्टीयम् पर आधारित आर्यपक्षीय पंचांग तथा ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त पर आधारित ब्राह्मपक्षीय पंचांग आदि का निर्माण होता था। कालान्तर (१४०० शक) में मकरन्दीय पंचांग का निर्माण मकरन्दसारिणी के आधार पर हुआ, किन्तु सारिणी सूर्यसिद्धान्त को आधार मानकर निर्मित की गई थी, अतः यह भी सौर पंचांगीय परम्परा के अन्तर्गत ही आता है। भारतवर्ष में प्राचीन पद्धतियों में सूर्यसिद्धान्त, ग्रहलाघव, मकरन्द तथा नवीन पद्धतियों में केतकीग्रहगणित, सर्वानन्दकरण तथा नाटिकल अल्मनाक द्वारा पंचांगों का निर्माण सम्प्रति अधिक रूप से देखा जा रहा है। मुख्यतः भारतवर्ष में दो प्रकार के पंचांग निर्मित होते हैं - 1. सायण 2. निरयण। अयनांश सहित सायन एवं अयनांश रहित निरयण पंचांग होता है।

2 पंचांग सम्बन्धित काल

       हमारे पंचांग के आरम्भ में संवत्सर फल विचार में युधिष्ठिर, विक्रम, शालिवाहन इत्यादि कलियुग के ६ शककर्ताओं के नाम लिखे रहते हैं। उनमें से युधिष्ठिरादि तीन बीत चुके हैं और तीन आगे होंगे। शक शब्द वस्तुतः एक जाति का बोधक है। भटोत्पल इत्यादिकों ने लिखा है कि विक्रमादित्य द्वारा शकों के पराजित होने के समय से शक नाम से कालगणना आरम्भ हुई, पर यह कथन सयुक्तिक नहीं प्रतीत होता। शक जाति के ही राजाओं ने अपने नाम पर कालगणना का आरम्भ किया होगा। शक शब्द प्रथम एक जाति का द्योतक था, परन्तु आज वह युधिष्ठिर शक, विक्रम शक इत्यादि शब्दों में काल अर्थ का अर्थात् इंगलिश के इरा और अरबी के सन् अर्थ का वाचक हो गया है। प्राचीन ताम्रपत्रादि लेखों में सन् अर्थ में संस्कृत के काल शब्द का प्रयोग मिलता है, जैसे- शकनृपकाल, विक्रमकाल, गुप्तकाल (गुप्त राजाओं के नाम पर आरम्भ किया हुआ काल)। भारतवर्ष में विक्रमकाल, शककाल इत्यादि अनेक काल प्रचलित थे और हैं। आइए यहाँ कुछ प्रमुख व्यावहारिक कालों को जानते है -

कलिकाल – ज्योतिषग्रन्थों और पंचांगों में कालगणना में कलियुग का भी उपयोग करते हैं। इस काल के चैत्रादि और मेषादि दो वर्ष प्रचलित हैं। पंचागों में कभी इसका गत वर्ष, कभी वर्तमान वर्ष और कभी-कभी दोनों लिखते हैं। ताम्रपत्रादि लेखों में इसका अधिक प्रयोग नहीं मिलता। व्यवहार में भी इस समय इसका प्रचार कही नहीं है, परन्तु मद्रास प्रान्त में कुछ ऐसे पंचांग मिलते हैं जिनमें केवल कलिवर्ष लिखा रहता है। शक में ३१७९ जोड़ने से गत कलिवर्ष आता है।

विक्रम काल – सम्प्रति यह गुजरात में और बंगाल को छोड़कर सम्पूर्ण उत्तर भारत में प्रचलित है। उन प्रान्तों के लोग अन्यत्र भी जहाँ हैं, इसी का प्रयोग करते हैं। नर्मदा के उत्तर इसके वर्ष का आरम्भचैत्र से होता है और मास पूर्णिमान्त हैं, परन्तु गुजरात में वर्ष कार्तिकादि है और मास अमान्त हैं। सन् ४५० ई० से ८५० पर्यन्त इस काल को मालवकाल कहते थे। विक्रम शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम विक्रम संवत् ८१८ के एक लेख में मिलता है, पर उससे भी यह स्पष्ट नहीं ज्ञात होता कि वह विक्रम राजा के ही उद्देश्य से किया गया है। वैसा स्पष्ट उल्लेख विक्रम संवत् १०५० के एक काव्य में सर्वप्रथम मिलता है। सम्प्रति विक्रमकाल को विक्रमसंवत् अथवा केवल संवत् भी कहते हैं। संवत् शब्द वस्तुतः संवत्सर का अपभ्रंश है। शंकसंवत् सिंहसंवत् वलभीसंवत् इत्यादि प्रयोग अनेक स्थानों में मिलते हैं। मद्रास प्रान्त के कुछ पंचांगों में शकवर्ष के साथ-साथ विक्रम का भी वर्तमान वर्ष लिखा रहता है। इधर जिस वर्ष को शक १८१८ कहते हैं, उसे वहाँ शक १८१९ और विक्रम संवत् १९५४ कहते हैं। शंक में १३४-१३५ जोड़ने से कार्तिकादि और १३५ जोड़ने से चैत्रादि विक्रम वर्ष आता है।

ख्रिस्ती सन् (ईसवी सन्) - हमारे देश में इस सन् का प्रचार अंग्रेजों का राज्य होने के बाद हुआ है। इसका वर्ष सायन सौर है। इसका आरम्भ जनवरी की पहली तारीख से होता है। सम्प्रति जनवरी का आरम्भ अमान्त पौष या माघ में होता है। यह पद्धति सन् १७५२ ई० से चली है। इसके पूर्व जनवरी का आरम्भ ११ दिन पहले होता था। शक में ७८ या ७९ जोड़ने से ख्रिस्ती वर्ष आता है।

शक काल - ज्योतिषशास्त्र के करणग्रन्थों में यही काल लिया गया है। ज्योतिषियों का आश्रय प्राप्त होने के कारण ही यह आज तक टिका है, अन्यथा गुप्तकाल, शिवाजी कि राज्याभिषेक शक इत्यादिकों की भाँति यह भी बहुत पहले ही लुप्त हो गया होता। सम्प्रति टिनेवल्ली और मलावार के कुछ भाग को छोड़कर सम्पूर्ण दक्षिण भारत में व्यवहार में मुख्यतः इसी काल का प्रचार है। भारत के अन्य भागों में भी यह स्थानिक काल के साथ-साथ प्रचलित है। इसका वर्ष चान्द्र और सौर है। चान्द्र वर्ष चैत्रादि और सौर वर्ष मेषादि है। नर्मदा के उत्तर भाग में इसके मास पूर्णिमान्त और दक्षिण में अमान्त है।

  हिजरी सन् - इसकी उत्पत्ति अरब में हुई है। हमारे देश में इसका प्रचार मुस्लिम राज्यकाल से हुआ है। हिझर का अर्थ है- भागना। मुसलमानों के पैगम्बर मुहम्मद साहब १५ जुलाई सन् ६२२ ई० तदनुसार शक ५४४ श्रावण शुक्ल १ गुरूवार की रात्रि (मुसलमानों की शुक्रवार की रात) को मक्का से भागकर मदीना गये थे। उनके भागने का समय ही इस सन् का आरम्भकाल है और इसीलिए इसे हिजरी सन् कहते हैं। इसके मोहर्रम इत्यादि मास चान्द्र हैं। अधिकमास लेने की पद्धति न होने के कारण यह वर्ष केवल चान्द्र अर्थात् ३५४ या ३५५ दिनों का होता है और इस कारण प्रति ३२ या ३३ सौर वर्षों में इस सन् के वर्ष का अंक किसी भी सौरकाल के वर्ष के अंक की अपेक्षा १ बढ़ जाता है। मास का आरम्भ शुक्ल्पक्ष की प्रतिपदा या द्वितीया के चन्द्रदर्शन के बाद होता है। मास के दिनों को प्रथम दिन, द्वितीय दिन न कहकर प्रथमचन्द्र, द्वितीयचन्द्र इत्यादि कहते हैं। मास में इस प्रकार के चन्द्र २९ या ३० होते हैं। वार और तारीख का आरम्भ सूर्यास्त से होता है। इस कारण हमारे गुरूवार की रात्रि मुसलमानी पद्धति के अनुसार शुक्रवार की रात्रि होती है, पर दिन के नाम में अन्तर नहीं पड़ता।

बंगाली सन् – यह सन् बंगाल में प्रचलित है। इसका वर्ष सौर है। इसका आरम्भ मेषसंक्रान्ति से होता है। महीनों के नाम चैत्र, वैशाख इत्यादि चान्द्र ही हैं। जिस महीने का आरम्भ मेषसंक्रान्ति से होता है उसे वैशाख कहते हैं। तमिल प्रान्त में उसी को चैत्र कहते हैं। बंगाली सन् में ५१५ जोड़ने से शकवर्ष और ५९३-९४ जोड़ने से ईसवी सन् आता है।

फसली सन्- फसल तैयार होने के काल के अनुसार इसे अकबर बादशाह ने चलाया है। पहले हिजरी सन् का ही वर्षांक इसमें लगाया गया, परन्तु हिजरी सन् केवल चान्द्र ३५४ दिन का और फसली सन् सौर होने के कारण बाद में दोनों के वर्षांकों में अन्तर पड़ने लगा। हिजरीसन् ९३६, ईसवीसन् १५५६ में अकबर गद्दी पर बैठा। उत्तर भारत में फसली सन् उसी समय आरम्भ हुआ और दक्षिण में शाहजहाँ ने उसे ईसवी सन् १६३६अर्थात् हिजरी सन् १०४६ में आरम्भ किया। प्रथम उसमें हिजरीसन् का ही वर्षांक अर्थात् १०४६ लगाया गया। उस समय उत्तर के फसली सन् का वर्षांक १०४४ था। इसलिए दक्षिण का अंक उत्तर की अपेक्षा दो अधिक हो गया। हिजरी वर्ष के केवल चान्द्र होने के कारण ऐसा हुआ। उत्तर और दक्षिण का वर्षारम्भ भिन्न होने के कारण दोनों में कुछ और महीनों का भी अन्तर पड़ गया। इस वर्ष का उपयोग केवल सरकारी कामों में होता है। धार्मिक कृत्यों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रतीत होता है कि इसी कारण इसका आरम्भकाल अनियमित हो गया।

  इसी तरह इनके अतिरिक्त चेदिकाल अथवा कलचुरिकाल, गुप्तकाल, वलभीकाल, बिलायती सन्, अमली सन्, सूरसन या शाहूरसन्, हर्षकाल, मगी सन्, कोल्लमकाल अथवा परशुरामकाल, नेवारकाल, चालुक्यकाल, सिंहसंवत्, लक्ष्मणसेनकाल, तथा इलाही सन् भी होते हैं।

      चान्द्रसौर मान- हमारे यहाँ कई मान प्रचलित हैं। धर्मशास्त्रोक्त अधिकाश कृत्यों का सम्बन्ध तिथि से अर्थात् चान्द्रमान से है, कुछ कर्म संक्रान्ति से अर्थात् सौरमान से सम्बन्ध रखते हैं और प्रभवादि संवत्सरों की उत्पत्ति बार्हस्पत्य मान से हुई है तथापि कुछ प्रान्तों में सौर मान का और कुछ में चान्द्रमान का विशेष प्रचार है। बंगाल में सौरवर्ष प्रचलित है। मद्रास में छपे ज्वालापति सिद्धान्तीकृत शक १८०९ के पंचांग में लिखा है कि इस देश में लोकव्यवहारार्थ चान्द्रमान ग्राह्य है और शेषाचल के दक्षिण सौरमान ग्राह्य है। सौर का सम्बन्ध सूर्य से तथा चान्द्र का सम्बन्ध चन्द्रमा से होता है। सूर्य के द्वारा एक अंश का भोग एक सौर दिन तथा चन्द्रमा द्वारा तिथि का भोग चान्द्र दिन कहलाता है। इसी प्रकार कालों के पश्चात् पंचांग से सम्बन्धित प्रमुख विषय वर्षारम्भ, नक्षत्रारम्भ, मासारम्भ आदि को भी आइए क्रमशः जानने का प्रयास करते हैं -

वर्षारम्भ – यजुर्वेदसंहिताकाल में और तदनुसार उसके बाद सभी वैदिक कालों में वसन्त ऋतु तथा मधुमास के आरम्भ में वर्ष का आरम्भ माना जाता था। वैदिक काल के अन्त में मधुमास का नाम चैत्र पड़ा। संवत्सरसत्र के अनुवाक तथा कुछ अन्य वाक्यों से ज्ञात होता है कि चित्रापूर्णमास (चैत्रशुक्ल १५ अथवा कृष्ण १), (फाल्गुनीपूर्णमास फाल्गुन शुक्ल १५ अथवा कृष्ण १), और कदाचित् अमान्त माघ कृष्ण ८ को संवत्सर का मुख कहा है। यह फाल्गुन अमान्त है है या पूर्णिमान्त यह ज्ञान का विषय है। संभवतः किसी समय पूर्णिमान्त पौषारम्भ में भी वर्षारम्भ होता था, परन्तु उस समय पौष नहीं था। वेदांगज्योतिष में अमान्त माघ के आरम्भ में वर्षारम्भ माना है। महाभारत में मार्गशीर्ष के वर्षारम्भ होने के उल्लेख हैं तथापि सूत्रादिकों से ज्ञात होता है कि वेदांगकाल में चैत्रादि वर्ष का प्राध्यान्य था। ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थकार अपनी सुविधा के अनुसार सौरवर्षारम्भ से अथवा चान्द्रसौर वर्षारम्भ से गणित करते हैं। गणेश दैवज्ञ ने ग्रहलाघव में चान्द्रसौर वर्षारम्भ से गणित किया है, परन्तु उन्हीं ने तिथिचिन्तामणि में मेषसंक्रान्ति को वर्षारम्भ माना है। सौरवर्ष का आरम्भअधिकतर मध्यम मेषसंक्रान्ति और कोई कोई स्पष्ट मेषसंक्रान्ति से करते हैं। चान्द्रसौर वर्ष का आरम्भ चैत्रशुक्ल प्रतिपदा के आरम्भ से ही किया जाता है, यह कोई नियम नहीं है। प्रायः उस दिन सूर्योदय से और कभी-कभी मध्यरात्रि, मध्याह्न अथवा सूर्यास्त से भी वर्षारम्भ मानते हैं।

       धर्मशास्त्र में चैत्र के आरम्भ से वर्षारम्भ माना है। व्यावहारिक दृष्ट्या धर्म और व्यवहार का निकट सम्बन्ध होने के कारण दोनों प्रकार के वर्षारम्भ का भी निकट सम्बन्ध है। भारत के अधिक भाग में वर्षारम्भ चैत्र से होता है। जिन प्रान्तों में शक काल और चान्द्रमान का व्यवहार होता है उनमें चैत्रशुक्ल प्रतिपदा को वर्षारम्भ होता है। नर्मदा के उत्तर बंगाल को छोड़कर शेष प्रान्तों में विक्रमसंवत् चान्द्रमान और पूर्णिमान्त मास का प्रचार है तो भी वर्षारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है। बंगाल में शककाल और सौरमान प्रचलित हैं। वहाँ वर्षारम्भ सौर वैशाख से अर्थात् स्पष्ट मेष संक्रान्ति से होता है परन्तु चान्द्र चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का महत्व वहाँ भी होगा। तमिल प्रान्त में सौर मान प्रचलित है। वहाँ वर्षारम्भ स्पष्ट मेषसंक्रान्ति से मानते हैं पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का माहात्म्य वहाँ भी होगा।

     वसन्त में मधु मास के आरम्भ अर्थात् चैत्रारम्भ में वर्षारम्भ होने का वर्णन श्रुति (वेद), वेदांग, स्मृति, पुराण, ज्योतिषगणितग्रन्थ तथा धर्मशास्त्र के प्राचीन और अर्वाचीन निबन्धग्रन्थ सभी में है। गुप्तसंवत् १५६ से २०९ तक के अर्थात् शकवर्ष ३९७ से ४५० तक के गुप्त राजाओं के जो ताम्रपत्रादि लेख मिले हैं, उनमें लिखित ज्योतिष सम्बन्धी सभी बातों की संगति चैत्रारम्भ में वर्षारम्भमानने से मिलती हैं। इन गुप्तों की सत्ता एक समय उत्तर भारत के अधिकतर भाग में व्याप्त थी। बेरूनी ने भी चैत्रारम्भ में वर्षारम्भ लिखा है। सारांश यह है कि यह वर्षारम्भ सार्वकालिक, सार्वत्रिक और सर्वमान्य है। इसके रहते हुए भी कहीं-कहीं अन्य वर्षारम्भ थे और हैं। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा वसन्त में ही पड़ती है। प्रतीत होता है, इसी कारण पूर्णिमान्त पद्धति के अनुसार वैदिक काल के कुछ भागों में कहीं-कहीं उसे भी वर्षारम्भ मानते थे। बंगाल में सौर वैशाख के आरम्भ में अर्थात् मेषारम्भ में वर्षारम्भ मानते हैं।
नक्षत्र चक्रारम्भ – वेदों में नक्षत्रारम्भ कृत्तिका से है। अनुमान होता है कि कृत्तिका के पूर्व मृगशीर्ष से नक्षत्रगणना करते रहे होंगे, पर इसका प्रत्यक्ष उल्लेख कहीं नहीं मिलता। ज्योतिष सिद्धान्तग्रन्थों में अश्विनी को आदि-नक्षत्र माना है। वैदिक काल या वेदांगकाल में यह पद्धति नहीं थी। वेदांगज्योतिष में धनिष्ठा से गणना की है। महाभारत से ज्ञात होता है कि एक समय श्रवण प्रथम नक्षत्र था, अर्थात् ये दोनों वेदांगकाल में प्रथम नक्षत्र आदि माने जाते थे। उस समय कृत्तिका भी प्रथम नक्षत्र था ही। मृगशीर्ष, कृत्तिका धनिष्ठा तथा श्रवण का सम्बन्ध उत्तरायणारम्भ से है।
नक्षत्रचक्र के आरम्भ में क्रमशः एक-एक नक्षत्र पीछे मानने की परम्परा चली आ रही हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता।
ज्योतिषाचार्य:- Pt.H.N.Kukreti 




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