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हिन्दू धर्म में नारायणबली का का करण एंव महत्व

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              नारायणबलि      सनातन (हिन्दू) धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है. यह धर्म प्रकृतिमूलक के साथ - साथ ईश्वरवादी भी है.  इस धर्म में ईश्वर, आत्मा तथा जीव में समन्वय स्थापित किया गया है. इसी लिए शास्त्रों में कहा गया है कि- "देवाधीनं जगत सर्वम, मंत्राधिनम च देवता"।।    हमारे धर्म शास्त्रों में मृत्यु का प्रकार,  मृत्यु का कारण तथा उसकी प्रकृति पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई है, और मृत्यु की गति के अनुसार व्यक्ति को इहलोक एवं परलोक की प्राप्ति होती है। जिन व्यक्तियों की आकस्मिक मृत्यु होती है तथा मृत्यु का कोई कारण पता नहीं चलता है और उनकी मृत आत्माएं इस लोक में मुक्ति के लिए भटकती रहती है. मृतात्मा की शांति के लिए नारायणबलि का प्रावधान बताया गया है, जो इस प्रकार है -    ग्यारहवें दिन से समन्त्रक श्राद्ध आदि करने की विधि है। प्राणी के दुर्मरण की निवृत्ति के लिये नारायणबलि करने की आवश्यकता होती है। दुर्मरण की आशंका न रहने पर नारायणबलि करना अनिवार्य नहीं है। शास्त्रों में दुर्भरण के निम्नलिखित कारण परिभ...

Grahchar fal ग्रहचार : भौमाचार फल

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 ग्रहचार : भौमाचार फल (ज्योतिषाचार्य पं. हेमवती नंदन कुकरेती) ग्रहचार : सामान्य परिचय ज्योतिष शास्त्र में ग्रहचार का अर्थ है ग्रहों का चलन। 'चर' शब्द चलन अर्थ में प्रयुक्त होता है। सूर्यादि ग्रहों का चार एवं चारफल का वर्णन समस्त संहिताचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में प्रतिपादित किया है। आइए मंगल के चार से आरम्भ करते है - अपने उदय नक्षत्र से सातवें, आठवें तथा नवें नक्षत्र में यदि मंगल वक्री हो तो उसे उष्णसंज्ञक कहते हैं। इसमें अग्नि भय होता है तथा प्रजा पीडित होती है। यदि मंगल दसवें, ग्यारहवें या बारहवें नक्षत्र में वक्री हो तो अल्प सुख एवं वर्षा होती है। कुजे त्रयोदशे ऋक्षे वक्रिते वा चतुर्दशे। व्यालाख्यवक्रं तत्तस्मिन् सस्यवृद्धिरहेर्भयम्।। यदि उदय नक्षत्र से तेरहवें या चौदहवें नक्षत्र में मंगल वक्री हो तो इसे व्याल नामक वक्र कहते हैं। इसमें धान्य की वृद्धि होती है तथा सर्पभय होता है। पंचदशे षोडशक्षै तद्वक्रं रूधिराननं। सुभिक्षकृत्भयं रोगान्करोति यदि भूमिजः ।। यदि १५ वें या १६ वें नक्षत्र पर मंगल ग्रह वक्री हो तो इसे रूधिरानन वक्र कहते हैं। इसमें सुभिक्ष होता है तथा भय एवं रो...