हिन्दू धर्म में नारायणबली का का करण एंव महत्व

             नारायणबलि 



    सनातन (हिन्दू) धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है. यह धर्म प्रकृतिमूलक के साथ - साथ ईश्वरवादी भी है.  इस धर्म में ईश्वर, आत्मा तथा जीव में समन्वय स्थापित किया गया है. इसी लिए शास्त्रों में कहा गया है कि- "देवाधीनं जगत सर्वम, मंत्राधिनम च देवता"।।

   हमारे धर्म शास्त्रों में मृत्यु का प्रकार,  मृत्यु का कारण तथा उसकी प्रकृति पर विस्तृत रूप से चर्चा की गई है, और मृत्यु की गति के अनुसार व्यक्ति को इहलोक एवं परलोक की प्राप्ति होती है। जिन व्यक्तियों की आकस्मिक मृत्यु होती है तथा मृत्यु का कोई कारण पता नहीं चलता है और उनकी मृत आत्माएं इस लोक में मुक्ति के लिए भटकती रहती है. मृतात्मा की शांति के लिए नारायणबलि का प्रावधान बताया गया है, जो इस प्रकार है -

   ग्यारहवें दिन से समन्त्रक श्राद्ध आदि करने की विधि है। प्राणी के दुर्मरण की निवृत्ति के लिये नारायणबलि करने की आवश्यकता होती है। दुर्मरण की आशंका न रहने पर नारायणबलि करना अनिवार्य नहीं है। शास्त्रों में दुर्भरण के निम्नलिखित कारण परिभाषित किये गये हैं- अग्नि में जलने, पानी में डूबने, अभिचारकर्म (मारण, मोहन, उच्चाटन आदि), ब्राह्मण के द्वारा, सिंह, व्याघ्रादि हिंसक पशुओं के द्वारा, सर्पादि के द्वारा, ब्रह्मदण्ड के द्वारा, विद्युत के द्वारा, साँड़ आदि सींगवाले जानवरों के द्वारा- इत्यादि कारणों से जिन लोगों की मृत्यु होती है, उन्हें दुर्मरणकी संज्ञा दी गयी है। मुख्य रूप से इस प्रकार से मरनेवालों की एकादश के दिन श्राद्ध के पूर्व नारायणबलि करनी आवश्यक मानी गई है, कारण इस प्रायश्चित्त के बिना श्राद्ध आदि में मृत प्राणी के निमित्त दिये गये पदार्थ उस जीवको प्राप्त नहीं होते, वे अन्तरिक्ष में स्थित रह जाते हैं- विनष्ट हो जाते हैं। परम्परावशात् कुछ लोगों के मत में प्राणी की सद्गति के निमित्त मृत्यु के समय करने की शास्त्रों में जो व्यवस्था


बतायी गयी है, वह कुछ प्राणियों के साथ अन्तिम समय में पूर्ण न होने के कारण उसे भी दुमृत्यु मानते हैं। अतः उनके मत में इस प्रकार की मृत्यु होने पर एकादशाह श्राद्ध के पूर्व प्रायश्चित्त रूप में नारायणबलि करनी चाहिये। शास्त्रों में और्ध्वदैहिक कार्यारम्भ के पूर्व ही नारायणबलि करने की व्यवस्था है, परंतु उस समय यह सम्भव न हो सकने के कारण एकादशाह कार्य के पूर्व नारायणबलि करनेकी विधि है।

     शास्त्रोंमें दुर्मरण का मुख्य स्वरूप आत्महत्या माना गया है। बुद्धिपूर्वक स्वेच्छा से जो व्यक्ति अग्नि, शस्त्र एवं फाँसी के द्वारा अविधिपूर्वक आत्महत्या करते हैं, वे आत्महत्यारे कहे गये हैं। शास्त्रके अनुसार उनकी सद्गति सम्भव नहीं है। इसलिये शास्त्रके अनुसार एक वर्ष तक (वर्षपर्यन्त) उनके निमित्त श्राद्ध आदि कोई क्रिया नहीं करनी चाहिये। वर्ष पूरा होनेपर लोकलज्जा के भय से नारायणबलि करके श्राद्ध आदि कृत्य करना चाहिये- 'नारायणबलिः कार्यो लोकगर्हाभयान्नरैः।' (श्राद्धचिन्तामणिमें पृ० १३५ में षट्त्रिंशन्मत) वर्षके भीतर आत्महत्या या अकाल मृत्यु के मित्त यदि कोई श्राद्धादि कृत्य करता है तो कर्ता को प्रायश्चित्तरूप में चान्द्रायण करने की विधि है- 'कृत्वा चान्द्रायणं पूर्व क्रियाः कार्या यथाविधि' (श्राद्धचिन्तामणि में स्मृत्यन्तरका वचन)
   प्रत्येक प्रान्त में नारायणबलि करने की विधि में कुछ अन्तर हो सकता है, परन्तु उद्देश्य में नहीं ।
 आत्महत्याके निमित्त यदि कोई श्राद्धादि कृत्य करता है तो कर्ताको प्रायश्चित्तरूपमें चान्द्रायण करनेकी विधि है- 'कृत्वा चान्द्रायणं पूर्व क्रियाः कार्या यथाविधि' (श्राद्धचिन्तामणिमें स्मृत्यन्तरका वचन)

ज्योतिषाचार्य पं. हेमवती नन्दन कुकरेती 

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